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तान्वो॑ म॒हो म॒रुत॑ एव॒याव्नो॒ विष्णो॑रे॒षस्य॑ प्रभृ॒थे ह॑वामहे। हिर॑ण्यवर्णान्ककु॒हान्य॒तस्रु॑चो ब्रह्म॒ण्यन्तः॒ शंस्यं॒ राध॑ ईमहे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tān vo maho maruta evayāvno viṣṇor eṣasya prabhṛthe havāmahe | hiraṇyavarṇān kakuhān yatasruco brahmaṇyantaḥ śaṁsyaṁ rādha īmahe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तान्। वः॒। म॒हः। म॒रुतः॑। ए॒व॒ऽयाव्नः॑। विष्णोः॑। ए॒षस्य॑। प्र॒ऽभृ॒थे। ह॒वा॒म॒हे॒। हिर॑ण्यऽवर्णान्। क॒कु॒हान्। य॒तऽस्रु॑चः। ब्र॒ह्म॒ण्यन्तः॑। शंस्य॑म्। राधः॑। ई॒म॒हे॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:34» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषयको अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) मनुष्यो जैसे हमलोग (वः) तुम्हारे लिये (तान्) उनको (एषस्य) ऐश्वर्यवाले (विष्णोः) व्यापक ईश्वर के (प्रभृथे) अत्युत्तम पालन में (महः) महान् व्यवहार के (एवयाव्नः) इस प्रकार विशेष ज्ञानको पाते हैं उन (हिरण्यवर्णान्) हिरण्य-सुवर्ण के समान वर्णवाले (ककुहान्) बड़े (यतस्रुचः) नियम से यज्ञपात्रों के रखनेवाले को (हवामहे) स्वीकार करते हैं और (ब्रह्मण्यतः) अपने को ईश्वर वा वेद की इच्छा करते हुए विद्वानों को (शंस्यम्) प्रशंसनीय (राधः) धनकी (ईमहे) याचना करते हैं, वैसे तुम हमारे लिये प्रयत्न करो ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि परस्पर एक-दूसरे से प्रीति के साथ और दुष्टों में अप्रीति के साथ वर्त्तकर व्यापक ईश्वर की भक्ति में प्रयत्न करें ॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मरुतो मनुष्या यथा वयं वस्तानेषस्य विष्णोः प्रभृथे मह एवयाव्नो हिरण्यवर्णान् ककुहान् यतस्रुचो हवामहे ब्रह्मण्यन्तः शंस्यं राध ईमहे तथा यूयमस्मभ्यं प्रयतध्वम् ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तान्) (वः) युष्मभ्यम् (महः) महतः (मरुतः) मनुष्याः (एवयाव्नः) य एवं विज्ञानं यान्ति तान् (विष्णोः) व्यापकस्य (एषस्य) ऐश्वर्यवतः (प्रभृथे) प्रकृष्टे पालने (हवामहे) स्वीकुर्महे (हिरण्यवर्णान्) हिरण्यमिव वर्णो येषान्तान् (ककुहान्) महतः। ककुह इति महन्नाम निघं० ३। ३। (यतस्रुचः) यताः स्रुचो यज्ञपात्राणि यैस्तान् त्विजः। यत स्रुच इति त्विग्ना० निघं० ३। १८। (ब्रह्मण्यन्तः) आत्मनो ब्रह्मेच्छन्तः (शंस्यम्) प्रशंसनीयम् (राधः) धनम् (ईमहे) याचामहे ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः परस्परस्मिन् प्रीत्या दुष्टेष्वप्रेम्णा च वर्त्तित्वा विष्णोरीश्वरस्य भक्तौ प्रयतनीयम् ॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी एकमेकांबरोबर प्रीतीने व दुष्टांबरोबर अप्रीतीने वागून व्यापक ईश्वराची भक्ती करण्याचा प्रयत्न करावा. ॥ ११ ॥